हमारी फिल्में समाज पर कोई प्रभाव छोड़े, ना छोड़े, मगर समाज में फैली अपसंस्कृति को बड़ी तेज़ी से और ताजगी के साथ उठाती रही है। हर चीज़ को मसालेदार जायके के साथ परोसने में फिल्में राजनेताओं को भी बहुत पीछे छोड़ देती है। अभी ‘‘सेटिंगबाज’’ की चर्चा करेंगे, जिसमें हर दूसरा-तीसरा आदमी सेटिंगबाज है, कुछ न कुछ अपने पक्ष में बस सेट करने के चक्कर में लगा रहता है। यह हमारी राय नहीं, वरन् फिल्म सेटिंगबाज के नायक राहुल सिंह का कथन है। हाल ही में राहुल ने एक भेंटवार्ता में कहा-
‘सेटिंगबाज’ एक मसाला फिल्म है और यहाँ हर दूसरा-तीसरा व्यक्ति कुछ-न-कुछ सेट करता नज़र आता है। हालांकि फिल्म पूरी ‘काॅमिक जोनर’ को लेकर चलती है, लेकिन इसमें कई गूढ़-गंभीर बात भी हंसी-हंसी कह दी गयी है।
यथा.....?
इसमें मैं एक सीधा-सादा लड़का हूँ, जो एक पढ़ी-लिखी लड़की (अपूर्वा बिट) के खयालों में डूबा रहता है, सपना देखता रहता है। ये तो काॅमिक अच की बात है। लेकिन, फिल्म में एक बात उठती है- गाँव के विकास के नाम पर उसके शहरीकरण करने की। इस आड़ में आजकल क्या-क्या होता है, यह सब किसी से छुपा नहीं है। हम उसी फर्जी प्रयास करने वालों पर प्रहार करते हैं।
फिल्म में ऐसा करता कौन है?
बबन यादव और समर्थ चतुर्वेदी। इस फिल्म को साकेत यादव ने बड़ी खूबसूरती से निर्देशित किया है। निर्मात्री गीत बिट की यह फिल्म है, जिसमें संतोषपुरी का गीत-संगीत है।
यह फिल्म तो प्रदर्शन पर है, इसके आगे.....?
इसके आगे मेरी एक फिल्म है ‘‘बिहारी इश्क’’।
सेटिंगबाज के हीरो बनने के पूर्व आप क्या-क्या करते रहते हैं?
इस फिल्म के पहले भी मैं अभिनय ही करता था। पहले महुआ चैनल के लाफ्टर एक्सप्रेस का प्रथम विजेता रहा हूँ। फिर ‘‘जुगाड़ूलाल’’ तथा ‘‘अखियों के झरोखों से’’ स्टार प्लस पर ‘‘रुक जाना नहीं’’ दूरदर्शन पर ‘कल्पना’। जी-पुरवईया पर ‘‘गजब’’ कार्यक्रम की एंकरिंग भी की है।
महुआ से पहले भी कुछ किया था?
हाँ, झारखंड नाट्य संस्था (दुमका) से जुड़ा था। फिर ‘‘एक गाँव’’ नामक ऐसी फिल्म भी बनायी, तभी से कुछ आगे करने की इच्छा थी। मैं लोखंडा क्षेत्र के सिकंदरा गाँव (जमुई, बिहार) का रहनेवाला हूँ। मेरी इच्छा थी कि एक अच्छा अभिनेता बनूँ। मुझे प्रसन्नता है कि ‘सेटिंगबाज’ जैसी मनोरंजक फिल्म का मैं नायक हूँ।udaybhagat@gmail.com
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