मूलरूप से वाराणसी की रहने वाली प्रिया सिंह पली-बढ़ी और पढ़ी हैं असम के नौगांव में, जहां इनका परिवार व्यवसाय करता था। लौटकर जब वाराणसी आयीं तो मनोज तिवारी के साथ एक धार्मिक अल्बम करने का मौका मिला। इसी ने इनके लिये फिल्म का रास्ता खोल दिया। अभी तक लगभग एक दर्जन फिल्में की हैं। इनमें वे फिल्में भी शामिल हैं जिनमें इन्होंने आइटम किया है। प्रिया सिंह को डांस और गायन से काफी लगाव है। इन दिनों क्लासिकल म्यूजिक सीख रही हैं। उनसे बातचीत-
ऐसा नहीं लगता कि भोजपुरी से बेहतर होता असमिया फिल्मों में काम करना, जहां आपका काफी समय गुजरा ?
असमिया फिल्मों में गंभीरता और शुद्धता को महत्व दिया जाता है ? पता नहीं क्यों, लोग भोजपुरी फिल्मों के साथ नफरत का संबंध बना लेते हैं ? हां, भोजपुरी में बहुत अच्छी फिल्में भले नहीं बन रही हों लेकिन बहुत बुरी भी नहीं बन रही हैं। कोई बताये कि किस इंडस्ट्री में खराब फिल्में नहीं बनती हैं। सिनेमा एक धंधा है, जहां हर स्वाद को तरजीह दी जाती है। दर्शक भी हर तरह के होते हैं, उनकी मांग का ध्यान रखना पड़ता है। जहां तक असमिया फिल्मों में काम करने का सवाल है तो बता दूं कि जब तक असम में रही, फिल्म के बारे में कभी सोचा भी नहीं था। स्कूल में थियेटर जरूर करती थी लेकिन एक्टिंग मेरा करियर बन जायेगा, यह ख्याल तो कभी आया ही नहीं था। परिवार को बिजनेस में ऐसा नुकसान हुआ कि सबको वाराणसी लौट कर आना पड़ा। यहीं पढ़ाई पूरी करने लगी। लोग मेरे हाव-भाव में एक एक्टर की छवि देखते थे। मेरे पास अल्बम के ऑफर आने लगे, तब मुझे लगा कि मेरी नियति कहीं और ले जाने के लिये बाध्य कर रही है। तभी मनोज तिवारी के एक होली अल्बम में मॉडल बनने का मौका मिला। उस अल्बम से मेरी कुछ पहचान कायम हुई। लोग पहचानने लगे। वह मेरे लिये अद्भुत समय था। उसके बाद मनोज जी ने एक फिल्म ‘‘पप्पू से प्यार हो गईल’ में काम दिलाया। रोल छोटा था मगर उससे फायदा यह हुआ कि कैमरे की भाषा समझ में आ गयी। मन से डर भी कुछ हद तक निकल गया।
एक दर्जन फिल्मों के बाद तो मन में संतुष्टि का भाव आ गया होगा? यह भी लगता होगा कि अब रास्ता आसान हो गया?
सिनेमा में संतुष्टि का भाव जिस दिन आ जायेगा, उसी दिन सामने के सारे रास्ते बंद हो जायेंगे। यह भाव तो आज के समय के सबसे महान एक्टर अमिताभ बच्चन के मन में भी नहीं आया है, फिर हम यह दावा किस आधार पर करें? मैंने तो अभी उतनी फिल्में भी नहीं की हैं। जितनी की है उनमें ‘‘बरसात’, ‘‘तू मेरा हीरो’ ‘‘हसीना मान जायेगी’ आदि में तो सिर्फ आइटम डांस है। लेकिन यह कह सकती हूं कि अपने जानते अच्छी फिल्में की है। वैसे मेरा सबसे ज्यादा लगाव डांस और गायकी के साथ है।
आपने तो डांस भी सीखा है और टीवी प्रोग्राम में परफॉर्म भी किया है, शायद तभी आइटम करने का मन भी किया होगा?
दोनों के बीच तुलना नहीं हो सकती। हिंदी सिनेमा में आइटम पर काफी मेहनत की जाती है। समय और पैसा भी खूब खर्च किया जाता है। उतने पैसे में तो भोजपुरी की एक फिल्म बन जाती है। दोनों के ऑडिएंस भी अलग हैं। मैं मानती हूं कि अपने बजट के साथ भोजपुरी में अच्छी फिल्में बन सकती है। कोशिश करने की जरूरत है। यह कोशिश निरहुआजी अपने प्रोडक्शन की फिल्मों में कर रहे हैं। कामयाब भी हो रहे हैं। मैं भी ऐसी ही फिल्मों में काम करना चाहती हूं ताकि अपने परिवार के साथ बैठकर फिल्में देख सकूं।
अर्चना उर्वशी ( राष्ट्रीय सहारा से साभार )
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