Wednesday, August 14, 2013
हिंदी के रवि किशन By विनोद अनुपम in Shukrawar Hindi magazine
किसी अभिनेता की दो फिल्में एक साथ रिलीज हों, और दोनों ही फिल्मों में उसके अभिनय और चरित्र को खासतौर से रेखांकित भी किया जाए, अमूमन ऐसा कम देखा जाता है लेकिन रवि किशन जैसा आमतौर पर हिंदी सिनेमा के लिए पराया माना जाने वाला अभिनेता जब ऐसा कमाल कर जाता है तो मानना पड़ता है जिंदगी में अनुभव और मेहनत कभी न कभी जरूर प्रतिदान देती है। अनुभव और मेहनत का यही प्रभाव देखा जा सकता है हाल ही में रिलीज ‘बजाते रहो’ और ‘इस्सक’ में। एकदम अलग जोनर की सामान्य सी दोनों फिल्मों को यदि कुछ विशिष्ट बनाती है, तो वह है रवि किशन। ‘बजाते रहो’ में रवि किशन एक चिटफंड बैंक के मालिक बने हैं, जो लोगों को रकम बढ़ाने का झांसा देकर करोड़ों रुपये इकट्ठा करता है लेकिन जब लोगों को रकम लौटाने की बारी आती है तो खुद पीछे हो जाता है और सारी जवाबदेही अपने एक कर्मचारी पर लाद देता है, जो अपमानित होकर आत्महत्या कर लेता है। एक ओर शातिर ठग और दूसरी ओर रईस पंजाबी व्यवसायी सब्बरवाल के दोहरे चरित्र को कुशलता से साकार कर रवि किशन विनय पाठक और रणवीर शौरी जैसे कलाकारों को बराबर की चुनौती ही नहीं देते, अपनी अलग पहचान बनाने में भी सफल होते हैं। इसके ठीक विपरीत मनीष तिवारी की ‘इस्सक’ में रवि बनारस के बालू माफिया सीता सिंह की दबंग भूमिका में दिखते हैं। जो भूमिका छोटी होने के बावजूद पूरी फिल्म को अपने नियंत्रण में रखता है। ये हैं हिंदी के रवि किशन, अपने भोजपुरी सिनेमा की जमीन से कोसों दूर। जिसकी गवाही इन्हीं दोनों फिल्मों के साथ में रिलीज हुई उनकी भोजपुरी फिल्म ‘धुरंधर’ भी देती है।
सिर्फ ‘इस्सक’ और ‘बजाते रहो’ में ही नहीं, रवि किशन जब भी हिंदी सिनेमा में दिखाई देते हैं, भूमिका की लंबाई से परे चमत्कृत करते हैं, चाहे ‘रावण’ के मंगल हों या ‘१९७१’ के कैप्टन जैकोब। १९७१ के भारत-पाक युद्ध पर बनी पीयूष मिश्रा लिखित इस फिल्म के साथ रामानंद सागर की प्रतिष्ठित फिल्म कंपनी ने लंबे समय के बाद बड़े परदे पर दस्तक ही नहीं दी थी, रामानंद सागर के बेटे अमृत सागर ने निर्देशन की शुरुआत भी की थी। मनोज वाजपेयी, दीपक डोबरियाल सहित दर्जन भर पुरुष अभिनेताओं के बीच भी रवि किशन को भुलाना संभव नहीं होता। खास कर अपने साथी सैनिकों को बचाने के लिए अपनी जान न्योछावर करने के क्लोज-अप में दिखाए जा रहे उनके दृश्य में अभिनय की परिपक्वता देखी जा सकती है। मणिरत्नम की ‘रावण’ में अभिषेक बच्चन के बरक्स रवि की कुछेक दृश्यों में सिमटी छोटी सी भूमिका थी, लेकिन ‘द हिंदू’ ने अपनी समीक्षा में खास तौर से रवि के अभिनय की सराहना करते हुए लिखा, अभिषेक बच्चन को रवि किशन से सीखना चाहिए कि किस तरह अभिनेता को पात्र के अंदर प्रवेश करना होता है। ‘द हिंदू’ की समीक्षा इसलिए भी अतिशयोक्ति नहीं लगती कि आखिर कोई तो बात है कि श्याम बेनेगल, मणिरत्नम, डॉ.चंद्र प्रकाश द्विवेदी, तिग्मांशु धूलिया, आनंद एल राय जैसे निर्देशक रवि की अभिनय क्षमता पर यकीन कर रहे हैं। ‘बुलेट राजा’ जैसी हार्डकोर कमर्शियल फिल्म में रवि को स्त्री और पुरुष की दोहरी भूमिका सौंपी जा रही है। उल्लेखनीय है कि हिंदी फिल्मों में रवि के लिए कोई टेलरमेड भूमिका नहीं लिखी जा रही। भोजपुरी में देशज भूमिकाओं की एकरसता के विपरीत हिंदी में रवि की पहचान विविधता से है, या कह सकते हैं कि उस अभिनेता के रूप में जो कोई भी भूमिका में अपनी छाप छोड़ सकता है। ‘एजेंट विनोद’ के रा एजेंट और ‘लक’ के शातिर अपराधी को देख कर कैसे यकीन किया जा सकता है कि इसकी बुनियाद अभी भी भोजपुरी सिनेमा पर ही टिकी है।
दांत पीस कर और गले फाड़कर संवाद बोलते और नायिकाओं के लहंगे को रिमोट से उठाते रवि किशन को देख कर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि सिर्फ भाषा बदलने के साथ किसी अभिनेता का अभिनय ही नहीं, उसका संपूर्ण व्यक्तित्व भी इस कदर किस तरह बदल सकता है। हिंदी सिनेमा में रवि की सिर्फ भाषा ही नहीं बदलती, लुक से लेकर जेश्चर-पोश्चर तक में एक नए रवि दिखाई देते हैं, जो इमरान खान के बरक्स श्रुति हसन जैसी आधुनिका को प्रभावित करने की कोशिश करता है। स्वाभाविक सवाल उठता है आखिर रवि किशन अपना उत्कृष्ट हिंदी के लिए बचा कर क्यों रखते हैं। क्यों नहीं उसका एकांश भी भोजपुरी सिनेमा में प्रदर्शित कर उसे समृद्ध करने की कोशिश करते हैं। जब भोजपुरी निर्देशक किरणकांत वर्मा के साथ रवि किशन ‘हमार देवदास’ में देवदास की भूमिका में अवतरित हुए तो हर किसी को उम्मीद थी कि भोजपुरी सिनेमा के लिए यह एक प्रस्थान बिंदु बन सकेगा लेकिन देवदास की कहानी के बावजूद रवि इसे भोजपुरी की सामान्य फिल्म से बेहतर नहीं बना सके।
यह बात सही है कि रवि किशन ने शुरुआत हिंदी फिल्म से ही की थी, वह भी काजोल जैसी अभिनेत्री के अपोजिट, जितेन्द्र जैसे अभिनेता के साथ, फिल्म थी ‘उधार की जिंदगी’। फिल्म हिट भी हुई लेकिन रवि के लिए मददगार साबित नहीं हुई। रवि को वास्तविक पहचान मिली भोजपुरी सिनेमा से ही। यह संयोग ही कहा जा सकता है कि रवि किशन जब हिन्दी सिनेमा से निराश हो चुके थे तो भोजपुरी सिनेमा को सदी के आखिरी दशक में हिंदी सिनेमा की वह जमीन मिल गई जो डेविड धवन और गोविन्दा की जोड़ी के साथ कायम भदेसपन के हाशिए पर जाने से खाली हुई थी। यह वह समय था जब हिंदी सिनेमा एन आर आई दर्शकों को लुभाने के दवाब में भव्यता को समर्पित होते जा रहा था। स्वाभाविक था हिंदी के मूल दर्शकों को भोजपुरी में थोड़ा अपनापन दिखा। भोजपुरी फिल्में बनने की गति भी तेज हुई और उसकी सफलता का प्रतिशत भी। इसी जमीन पर उदय हुआ रवि का। उत्तर प्रदेश के जौनपुर से मुंबई पहुचने वाले रवि के लिए यह सहज भी था। अभिनेता के रूप में रवि की पहचान को भोजपुरी सिनेमा भले ही मजबूत नहीं कर सका, एक ब्रांड के रूप में स्थापित होने में रवि को देर नहीं लगी।
लेकिन हिंदीr सिनेमा से शुरुआत करने वाले रवि किशन अपनी क्षेत्रीय पहचान से संतुष्ट नहीं हो सकते थे। भोजपुरी में लोकप्रियता के चरम पर रहते हुए ही उन्हें जब ‘बिग बॉस’ में आने का प्रस्ताव मिला तो बेहिचक उन्होंने हामी भर दी, यह जानते हुए भी कि उनके स्थापित कॅरिअर के लिए यह खतरनाक हो सकता है। रवि के आत्मविश्वास ने उनका साथ भी दिया और दर्जन भर सेलिब्रेटी के बीच उन्होंने अपने दर्शकों को याद करवा दिया, ‘जिंदगी झंड बा, फिर भी घमंड बा’। बिग बॉस के फाइनल तक पहुंचे रवि के व्यक्तित्व और एटीट्यूड ने हिंदी सिनेमा को उसे एक बार फिर करीब से जानने का मौका दिया और फिर रवि ने मिल रहे एक-एक अवसर का, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, शिद्दत के साथ उपयोग किया। जो भी चुनौती मिली उसे स्वीकार किया, चाहे वह ‘चितकबरे’ में नंगे खड़े होने का हो या, ‘४०८४’ में अतुल कुलकर्णी, नसीरुद्दीन शाह, के के मेनन जैसे लीजेंड अभिनेताओं के सामने उतरने का, या फिर ‘मेरे डैड की मारुति’ और ‘तनु वेड्स मनु’ जैसी फिल्मों की छोटी भूमिकाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने का।
हिंदी में लगातार सशक्त होती पहचान के बीच भी रवि भोजपुरी से परहेज करते नहीं दिखते। आज भी रवि किशन की भोजपुरी फिल्में रिलीज हो रही हैं और यहां रवि उसी फूहड़ता का निर्वाह करते दिखाई देते हैं, जिसके लिए भोजपुरी फिल्में जानी जाती हैं। रवि कहते हैं, ‘सिनेमा एक सामूहिक निर्माण प्रक्रिया है। कलाकार का अभिनय कई बातों पर निर्भर करता है, पटकथा, निर्देशन, साथी कलाकारों का अभिनय... भोजपुरी सिनेमा की जैसी निर्माण प्रक्रिया है, एक अभिनेता उसे बहुत प्रभावित नहीं कर सकता। जाहिर है कि भोजपुरी में भोजपुरी के व्याकरण में ही मुझे भी काम करना होता है। जबकि जब आप श्याम बेनेगल के साथ काम कर रहे होते हैं या सामने नसिर साहब जैसे महान अभिनेता होते हैं तो आप स्वयं अपने को बेहतर करने के लिए तैयार कर लेते हैं।
वाकई हिंदी सिनेमा में रवि किशन की सफलता कहीं न कहीं भोजपुरी सिनेमा को मुंह चिढ़ाती दिखती है। मराठी, बांग्ला, मलयाली, असमिया..़ जिस भी भाषा में फिल्म बन रही है, उसके पास अपने अभिनेता हैं, तो अपनी कहानी भी, जिसके बल पर वे फिल्में राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय सम्मान तक हासिल कर रही हैं लेकिन भोजपुरी शायद एकमात्र ऐसी भाषा होगी जिसके अभिनेता को अपना श्रेष्ठ दिखाने के लिए दूसरी भाषा के शरण में जाना पड़ता हो। सवाल रवि किशन नहीं, भोजपुरी के सामने है, क्या उसके पास भी कभी कोई ‘वेलकम टु सज्जनपुर’ जैसी फिल्म हो सकेगी, जहां कोई भी अभिनेता अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन को उत्साहित हो सके।
http://shukrawar.net/detail.php?cat=15 Sabhar - Vinod Anupam ji
udaybhagat@gmail.com
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